Friday, February 8, 2013

बुरा मानने का..... आपको पूरा पूरा हक है.....

देखिये इस तरह हर बात पर बुरा मानने का 

आपको पूरा पूरा हक है। 

क्यों नहीं बुरा मानेंगे जी?

हरगिज़ मानेंगे 

ज़रूर मानेंगे
बल्कि मेरा तो कहना है की आपको हर बात पर बुरा मानना चाहिए। कोई हँसे तो बुरा मानिए। कोई रोये तो बुरा मानिए। कोई बोले तो बुरा मानिए। कोई चुप रहे तो बुरा मानिए। बल्कि होना तो यह चाहिए की यदि कोई जीवित है तो आप  जीवित होने का भी बुरा मान  सकते है।गोया हमारे न चाहने के बावजूद बन्दा  या बन्दी जीवित कैसे है?? और यदि कोई मर जाए तो उसका भी बुरा मानिए की हमसे पूछे बिना मर कैसे गया???

दोस्तों, दरअसल बुरा मानना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। वस्तुतः बुरा मानना प्राणिमात्र का जन्मसिद्ध अधिकार है। और इंसान होने के नाते हमें अपने जन्मसिद्ध अधिकारों का उपभोग करने का भी पूरा पूरा अधिकार है। बल्कि मैं तो कहती हु यदि कोई इंसान किसी बात का बुरा नहीं मानता  तो यकीनन वह मानव नहीं अपितु किसी दूसरी प्रजाति का जीव है। 

अतः चिर सत्य यही है की बुरा मानना एक सार्वभौमिक क्रिया है। अब एक दिलचस्प घटना सुनिए। कुछ दिन पहले हमें किसी ने फेसबुक पर बताया की "अमुक का तमुक के साथ कुछ चक्कर है। कितनी बुरी बात है।" 
उस दिन हमें यह ज्ञान मिला की चक्कर जैसी नितांत निजी प्रक्रिया भी लोगो के बुरा मानने का भरपूर अपितु मुख्य कारण है। अब उसी दिन दूसरा प्रकरण यह हुआ की एक तीसरे प्राणी ने बताया की "चमुक" फिलहाल सिंगल है। "चमुकजी  कह रहे थे कि मनपसंद कोई मिलती नहीं। बुरी बात है। अक्चुअली चमुकजी  को ही किसी ने पसंद नहीं किया। बात बेहद बुरी है।"

तो इस तरह आपने देखा कि  हम सब प्राणी विभिन्न परिस्थितियों अपने बुरा मानने के हक का उपयोग करते है। अब किसी दुसरे का उदाहरण नहीं देंगे। कौन जाने हमारे उदाहरणों का कोई बुरा मान जाए। तो उदाहरण स्वरुप हमें ले लीजिये। हम लिखते है तो लोग बुरा मानते है और नहीं लिखते तो भी लोग बुरा मानते है। अब हम जो लिखते है उसपर भी लोग बुरा मानते है। मसलन प्रेमकहानी क्यों लिखी बुरी बात है [फॉर व्हाट यू आर]। और फिर उफ्फ् तुम स्नेहा गुप्ता हो या घृणा गुप्ता हो जो श्रुति सेन की ऐसी कहानी लिखी?? बहुत बुरी बात है।

और तो और  फेसबुक प्रोफाइल पर भी बुरा मानते है।  फेसबुक पर रहे तो बुरा माने और न रहे तो भी बुरा माने। जैसे कि कुछ समय के लिए यदि गायब हो जाए तो फ़ोन पर फ़ोन आने शुरू हो जाए की कहाँ हो बालिके? एक हमारे मित्र बेतक़ल्लुफ़ी से सीधा सवाल दागते है - स्नेहा बेटे इसी दुनिया में हो या निकल ली?" तो हम भी जवाबी फायरिंग करते है - मरे हमारे दुश्मन हम अभी सौ साल तक नहीं मरने वाले।

तो  भक्तजनों,

इस पुरे प्रवचन का निचोड़ यही है की बुरा मानना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और इसका भरपूर उपयोग कीजिये। हर बात का बुरा मानिए।

क्या कहा??

इस प्रवचन का बुरा मान गए??

चलिए, मेहनत सफल हुई।

क्या कहा?? 

झेल नहीं पा रहे??

अब जनाब इतना पढ़ लिया आपने, तो अब क्या कीजियेगा...... झेल लीजिये...... 

Wednesday, September 19, 2012

पांडेयजी की रेल यात्रा

दोस्तों नमस्कार, बड़े दिनों बाद आपसे रु-ब-रु होने का मौका मिला. जी जी हाँ, आपकी नाराजगी जायज है लेकिन क्या करू, ज़रा अपनी किताबो में व्यस्त हो गयी थी.

हाँ तो दोस्तों पिछले पोस्ट में आपने पढ़ा की किस तरह टपोरियो की तरह टीपोरी भी हमारे समाज में सक्रिय है. बस इसी परंपरा को आगे बढाते हुए, मैं आप लोगो के सामने एक सांझा की ही रचना रख रही हु. हालांकि इसके लिए मुझे टीपोरी कहना बिलकुल भी जायज नहीं है क्यूंकि यहाँ मैं बता देना चाहूंगी की यह रचना मेरे मित्र गुलशन पाण्डेय की है. अब श्रीमान पांडेयजी ने वास्तव में इसे लिखा या उन्होंने भी इसे कही से टीप लिया इसकी जानकारी मुझे नहीं है. आजकल पांडेयजी के ठौर ठिकाने की भी कोई खबर नहीं है क्यूंकि पिछले साल कुछ दोस्तों से पता चला की श्रीमान हमारे बैंक को अलविदा कह चुके. अब उन्होंने सचमुच अलविदा कह दिया या यह बात बस ऐन्वई उन्हें चिढाने के लिए उड़ाई गयी ये मुझे नहीं मालुम. हालांकि जिस ट्रेनिंग कार्यक्रम में हमारी और बैच के सभी कर्मियों की दोस्ती हुई थी उसको अनुमानतः करीब ३ साल बीत चुके. इसी बीच कई साथी बैंक छोड़ गए. कईयों से कान्टेक्ट ख़तम हो गया. लेकिन यह मानने में कोई गुरेज नहीं पांडेयजी हमारे बैच के सदाबहार कलाकार थे. मसलन यदि गीत गाना हो तो पांडेयजी है न. नृत्य करना हो तो पांडेयजी है न. और तो और हमें ये भी पता लगा की खाना बनाना हो तो भी पांडेयजी है न. एक बार ऐसे ही पांडेयजी को महसूस हुआ की उनका मज़ाक उड़ाया जा रहा है. फिर क्या था. जो उन्होंने चुप्पी साधी की हमारे नेताजी को उनका मुह खुलवाने में पसीने छुट गए.

३ साल हो गए सब  दोस्तों से मिले  हुए. फ़ोन  पर बाते होती  तो है पर यदा कदा. पांडेयजी  अब कहा है, मालुम नहीं. शायद मुग़ल-ए-आज़म गौरव को मालुम हो.

खैर दोस्तों, पेश है पांडेयजी की रेल यात्रा उन्ही की जुबानी...

भारतीय रेल की जेनेरल बोगी,
पता नहीं आपने भोगी या नहीं भोगी,
मैंने भोगी
करनी पड़ी मुझको आकस्मिक यात्रा
स्टेशन पर देख पैसेंजेर  की मात्रा,
मेरे होश उड़ने लगे
मेरे होश उड़ने लगे
हम ब्रीफकेस उठाकर घर की ओर मुड़ने लगे
इतने में एक कुली आया
मुस्कुराया
बोला- अन्दर जाओगे?
मैंने पूछा- तुम पहुचाओगे?
वोह बोले- पंहुचा तो मैं दूंगा
पर रुपये पुरे पचास लूँगा
मैंने कहा- पचास रुपईया?
वह बोला - हाँ भईया,
पहले तुमको उठाना होगा
फिर अन्दर धकियाना होगा
मैंने कहा- चल भईया,
तू ले ले पचास रुपईया,
उसने मुझे उठाया,
पहली बार उठाया तो बैठ गया
दूसरी बार उठाया तो लेट गया
फिर बोला-भैया,
तुम रखो अपना पचास रुपैया,
तुमको मैं क्या उठाऊंगा
तुमको उठाते उठाते मैं खुद ही उठ जाऊँगा...
मैंने उसका हौसला बढ़ाया
उसने भी जय  बजरंग बली का नारा लगाया
और किसी तरह आपातकालीन खिड़की के रास्ते मुझे अन्दर पहुचाया
अन्दर डिब्बा घमासान था
अपने आप में पूरा हिन्दुस्तान था
कुछ बैठे थे, कुछ खड़े थे,
जिनको  कही जगह न मिली वो बर्थ के निचे पड़े थे
मैंने भी टांका भिड़ाया
एक सोते हुए आदमी को खिसकाया
और थोड़ी सी जगह में खुद को बिठाया
तभी अचानक उसी खिड़की के रास्ते एक बोरा अन्दर आ गिरा
एक सज्जन चिल्लाये- अरे, किसका बोरा है ये किसका बोरा?
तभी बोरे में एक लड़का निकलकर बोला,
अकेला नहीं है ये बोरा ,
बोरे के अन्दर है एक छोरा ,
अन्दर आने का यही एक तरीका था,
जो मैंने अपने माँ-बाप से सीखा था
अभी वो भी इसी खिड़की के रास्ते इसी तरह अन्दर आयेंगे
मैं तो बर्थ के निचे घुस जाऊँगा,
वो आपके सर पर बैठ कर जायेंगे.
कहिये, आप और कुछ भी फरमाएंगे?
वो सज्जन बेचारे चुप हो लिए.
अब क्या हुआ आगे, सुनिए ,
एक गंजे भाई साहब के सर पर गिरी  पानी की दो चार  बूंदे,
वो चिल्लाये और गरजे,
अरे कौन है कौन है?
जल गिरा कर मौन है?
तभी ऊपर वाले बर्थ से एक महिला बोली,
भाई साहब हमारे यहाँ चार महीने का मुन्ना लेटा है,
ज़रा चुप रहिये की अगर ये जाग गया तो...
और बस फिर वो चुप हो ली..
तभी अचानक गाड़ी हिली ,
किसी ने कहा चली,
किसी ने कहा खुली,
किसी ने कहा या अली,
कोई बोला जय बजरंग बली,
मैंने खिड़की बाहर झाँका,
बाहर का नज़ारा ताका,
और अन्दर आकर सबको बताया,
अरे भैया, कहे की अली और काहे की बली
गाडी तो बगल वाली चली,
गाडी बगल की चलती जा रही है
और तुमको अपनी चलती हुई नज़र आ रही है

यही दुनिया है दोस्त,
धन्यवाद.




Saturday, July 7, 2012

मुफुत का माल.... टीपते जाइए हुजुर...

टीपना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. जैसे रचनाकार के लिए रचना करना एक आम बात है वैसे ही टीपोरी के लिए टीपना एक आम बात. अब कृपया यहाँ टीपोरी को टपोरी के साथ घाल मेल न करे. टीपोरी उसे कहते है जो टीपता है. टपोरी किसे कहते है... बताने की आवश्यकता नहीं है. वैसे टीपने का इतिहास बहुत पुराना है. कहते है मौलिकता के प्रादुर्भाव के साथ साथ ही टीपने की संस्कृति भी अस्तित्व में आई. संभ्रांत भाषा में इसे सांझा करना भी कहते है. टीपना दो प्रकार का होता है. एक शराफत से टीपना और दूसरा मुफुत की तारीफ़ के लिए टीपना. दोनों तरह के टीपो का उदाहरण फेसबुक पर उपलब्ध है. दर असल ये जो शेयर का लिंक होता है वस्तुतः वो शराफत से टीपने का लिंक है. टीप कर बड़ाई लूटिये और मूल लेखक को इसका श्रेय दे दीजिये. दुसरे तरह का टीपना भी यहाँ होता है. किसी की रचना को कॉपी कीजिये और अपने वाल पर चिपका कर वाह वाह लूट लीजिये.


दुनिया  में जो कुछ भी खेल है बस टीपे जाने का ही खेल है. दोस्तों, आप लोगो  को याद होगा की मुझे कई  फिल्मो के लेखन के ऑफर मिले थे. खुश तो मैं बहुत हुई थी. दर असल ये ऑफर मुख्य लेखक के सचिव अस्सिटेंट इत्यादि  द्वारा दिए जाते है. आपका नाम छद्म रहता है लेकिन इसकी वाजिब फीस आपको मिलती है. मेरी किताब के वार्तालाप से प्रभावित थे ये सारे ऑफर. उनमे से एक फिल्म और इससे जुडी टीपने की घटना का ज़िक्र करती हु. इस फिल्म के बारे में मुझे सिर्फ इतना मालुम था की कहानी ज़रा हटके है और नायिका प्रियंका चोपड़ा  है. बिलकुल इमानदार शब्दों में कह रही हु मेरी ख़ुशी का तो ठिकाना ही नहीं था. बात चीत पूरी हो गयी थी और मुझे एक सीन लिखने के लिए दे भी दिया गया था. केवल कांट्रेक्ट  साइन करना बाकी था. मैंने निर्देश के मुताबिक़ सीन तैयार करके उनके भेज दिया और जवाब का इंतज़ार करने लगी. लेकिन जवाब नहीं आया. इसी बीच मुझे एक खबर द्वारा पता चला की एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर की लेखिका उस फिल्म को लिख रही है. मतलब साफ़ था. खैर, मैं उदास तो हुई पर ज्यादा नहीं. इच्छा हुई की अपनी लेखनी कैसे सुधारु. उन लेखिका के बारे में पता लगाया. इत्तफाक से फेसबुक पर मिल गयी. मैंने उनको बधाई दी. उन्होंने बड़े गर्व से अपनी उपलब्धियां गिनाई. फलां लेखक के साथ काम किया है फलां प्रोडूसर के साथ काम किया है. ये वो और बहुत कुछ. मैंने सोचा की सच इनके आगे मेरी औकात ही क्या. फिर ख़याल आया की क्यों न कुछ सीख लू सो मैंने आग्रह करके उनसे एक सैम्पल  सीन देने को कहा. और दोस्तों आप शायद समझ ही गए होंगे की मुझे कृतार्थ करते हुए उन्होंने जो सीन मुझे भेजा वो वही मेरा खुद का लिखा हुआ सीन था.

तो आप लोगो ने देखा की टीपने की संस्कृति कितनी ज्यादा पल्लवित और पुष्पित हो रही है. शराफत से टीपी गयी यानी की लेखक का नाम बताकर सांझा की गयी रचनाओं की हम सब खूब प्रशंसा करते है. और करनी भी चाहिए क्यूंकि ये कुछ गलत नहीं है. लेकिन दूसरी तरह से टीपी गयी चीज़े..... खैर, उनको तो मैंने झेला ही है... आप भी क्या  कीजियेगा.... झेल लीजिये...

Sunday, May 6, 2012

लहरिया कट बाइकर्स - शोधपत्र

बाइकर्स दो प्रकार होते है. एक वो जो एक सुसभ्य, सुसंस्कृत मनुष्य की तरह अपने पीछे बैठे अथवा बैठी दोस्त/ पापा/ चाचा/ मामा/मौसा इत्यादि अथवा गर्लफ्रेंड/पत्नी/दोस्त/मम्मी/चाची/मामी/मौसी/बहन इत्यादि का ख्याल रखते हुए बिलकुल मनुष्यों की तरह बाइकिंग करते हैं. दुसरे वो जो अमेज़न के जंगलो में रहने वाले अनाकोंडा सांप से प्रशिक्षण प्राप्त कर बाइकिंग करते है. इन्हें लहरिया कट बाइकर्स कहा जाता है. इन्हें इनका नाम अनाकोंडा जैसी लहरदार चाल के लिए मिला है.

मैंने लहरिया कट बाइकर्स पर बहुत शोध किया है [भला हो डिसकवरी  चैनल वालो का] और उसी के आधार पर मैं यह शोधपत्र प्रस्तुत कर रही हु. शोध से मुझे यह पता चला है की लहरिया कट बाइकर्स का प्रशिक्षण अनाकोंडा द्वारा ही होता है. इनकी चाल-ढाल तथा स्वभाव अनाकोंडा से बहुत प्रभावित होता है. ये भी अनाकोंडा की तरह लहराते हुए चलते है. बेफिक्रे से. जैसे अनाकोंडा मनुष्यों की जान के दुश्मन होते है ठीक उसी तरह लहरिया कट बाइकर्स भी सीधे सादे पदयात्रियो के दुश्मन होते है. कब, कहा, किसको ठोक दे कुछ पता नहीं. जैसे अनाकोंडा किसी इंसान को ठोक देने माफ़ कीजिएगा निगल जाने के बाद चार पांच दिनों तक पडा रहता है ठीक उसी तरह लहरिया कट बाइकर्स भी किसी को ठोक देने के बाद चार-पांच दिनों तक अस्पताल में पड़े रहते है. अनाकोंडा के लिए जंगल का कोई क़ानून नहीं है. लहरिया कट बाइकर्स के लिए ट्रैफिक का कोई क़ानून नहीं है.

हालांकि इन दोनों में कुछ भिन्नताएं है. सही भी है की बिल्ली मौसी ने अपने शेरू को सब सिखाया लेकिन पेड़ पर चढ़ना नहीं सिखाया. अनाकोंडा अपने इलाके में अकेला रहता है. लहरिया कट बाइकर्स झुण्ड में चलते है. अनाकोंडा तब तक वार नहीं करता जब तक उसे खतरा महसूसन हो. लहरिया कट बाइकर्स अपने साथ साथ सड़क के हर यात्री को खतरे में डाले रहते है. अनाकोंडा का कहना है की तू मुझे तंग मत कर मैं भी तुझे तंग नहीं करूंगा. लहरिया कट बाइकर्स कहते है कि मैं तो मरुंगा ही तेरी भी व्हाट लगा जाऊँगा.

मुद्दे की बात ये की गुरु महाराज ने अच्छी शिक्षा दी लेकिन चेले बिगड़ गए. अब आप ही सड़क पर चल कर देखिये. जय हो लहरिया कट बाइकर्स की कि आपको जीते जी यमराज के दर्शन हो जायेंगे. अगर यमराज साथ न भी ले जाए तो भी लहरिया कट बाइकर्स कि मेहरबानी से हड्डियां टूटना तो तय. रोज रोज के हादसे - रोज रोज लोगो को ठोकना. और हम आप असहाय मनुष्य. लहरिया कट बाइकर्स नहीं सुधरेंगे. हम तो झेल ही रहे है. अब आप भी क्या कीजियेगा... झेल लीजिये...

Monday, April 30, 2012

क्रोध प्रदर्शन और क्या कीजियेगा... झेल लीजिये...

क्रोध प्रदर्शन प्रत्येक व्यक्ति का नैतिक अधिकार है. स्त्री हो अथवा पुरुष, सभी को पूरा पूरा हक है की वह अपने क्रोध का प्रदर्शन करें. क्रोध प्रदर्शन एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. ठीक वैसे ही जैसे एक सियार के हुआ हुआ करने पर दुसरे सियारों की भी हुआ हुआ करने की इच्छा. या फिर कौआ कान ले गया कहने पर कान को देखने के बजाये कौए के पीछे भागने का स्वाभाविक उपक्रम. [ सभी सियारों, सभी कौओ और सभी "कानो" से मेरी करबद्ध क्षमाप्रार्थना]

दोस्तों, कहा जाता है की प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में ऐसा वक़्त आता है जब उससे उसका कोई हक छीन लिया जाता है. किन्तु, हे मित्रगण, मेरा यह केवल विश्वास ही नहीं वरन, दावा है की मेरी ही तरह आप सबके जीवन में प्रतिदिन ऐसा वक़्त आता होगा जब आपसे आपका क्रोध करने का हक छीन लिया जाता होगा. यदि प्रति दिन न आता हो तो प्रति सप्ताह अवश्य आता होगा, ऐसा मेरा अटल विश्वास है. याद कीजिये, दोस्तों याद कीजिये. याद कीजिये वह वक़्त जब आपको गुस्सा आया. गुस्से से आपके दांत किटकिटाने लगे, मुट्ठियाँ भींच गयी, त्योरियां चढ़ गयी, मिजाज़ झनझना उठा और दिमाग सनसना उठा. आप गुस्से के चरम पर जा पहुंचे. आपके गुस्से का गुबार अब फूटा की तब फूटा. की अचानक...

अचानक आपको अपना गुस्सा पी जाना पड़ा. आपसे क्रोध प्रदर्शन का हक छीन लिया गया. आपको अपना गुस्सा नहीं उतारने दिया गया. अं वक़्त पर आपको अपने बड़प्पन का एहसास दिला दिया गया. आप अपने गुस्से का कड़वा घूँट पी गए. आँखें बंद कीजिये और याद कीजिये वह अहसास जो आपको अपना क्रोध प्रदर्शन न कर सकने की स्थिति में खुद को बेहद दयनीय पाकर हुआ. उफ़ !

लेकिन ऐसा क्यूँ होता है? याद कीजिये वह लम्हा जब आपका गुस्सा फूट कर बाहर निकलने वाला था. तभी अचानक किसी का हाथ आपके कंधे पर पड़ता है और आपके कानो में आवाज़ आती है - "क्या कीजियेगा... झेल लीजिये..."

क्या कीजियेगा... झेल लीजिये... यह चार शब्द इतने विरोधाभास से परिपूर्ण है की कानो में पड़ते ही ये आपके गुस्से को सांतवे आसमान पर ले जाते है लेकिन आपसे उसे व्यक्त करने का हक छीन लेते है. कानो में ये शब्द पड़े नहीं की आपको मजबूरन गुस्से को पीकर, दांत भींचकर रह जाना पड़ता है. इच्छा तो बहुत होती है की बता दे की क्या कर सकते है लेकिन मजबूरन झेल लेना पड़ता है. बेचारे आप!

अँ हाँ , देखिये मैं जानती हूँ की ब्लॉग पढ़ते पढ़ते अब आपके सर में दर्द शुरू हो गया है.
लेकिन, क्या कीजियेगा... झेल लीजिये...