Saturday, July 7, 2012

मुफुत का माल.... टीपते जाइए हुजुर...

टीपना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. जैसे रचनाकार के लिए रचना करना एक आम बात है वैसे ही टीपोरी के लिए टीपना एक आम बात. अब कृपया यहाँ टीपोरी को टपोरी के साथ घाल मेल न करे. टीपोरी उसे कहते है जो टीपता है. टपोरी किसे कहते है... बताने की आवश्यकता नहीं है. वैसे टीपने का इतिहास बहुत पुराना है. कहते है मौलिकता के प्रादुर्भाव के साथ साथ ही टीपने की संस्कृति भी अस्तित्व में आई. संभ्रांत भाषा में इसे सांझा करना भी कहते है. टीपना दो प्रकार का होता है. एक शराफत से टीपना और दूसरा मुफुत की तारीफ़ के लिए टीपना. दोनों तरह के टीपो का उदाहरण फेसबुक पर उपलब्ध है. दर असल ये जो शेयर का लिंक होता है वस्तुतः वो शराफत से टीपने का लिंक है. टीप कर बड़ाई लूटिये और मूल लेखक को इसका श्रेय दे दीजिये. दुसरे तरह का टीपना भी यहाँ होता है. किसी की रचना को कॉपी कीजिये और अपने वाल पर चिपका कर वाह वाह लूट लीजिये.


दुनिया  में जो कुछ भी खेल है बस टीपे जाने का ही खेल है. दोस्तों, आप लोगो  को याद होगा की मुझे कई  फिल्मो के लेखन के ऑफर मिले थे. खुश तो मैं बहुत हुई थी. दर असल ये ऑफर मुख्य लेखक के सचिव अस्सिटेंट इत्यादि  द्वारा दिए जाते है. आपका नाम छद्म रहता है लेकिन इसकी वाजिब फीस आपको मिलती है. मेरी किताब के वार्तालाप से प्रभावित थे ये सारे ऑफर. उनमे से एक फिल्म और इससे जुडी टीपने की घटना का ज़िक्र करती हु. इस फिल्म के बारे में मुझे सिर्फ इतना मालुम था की कहानी ज़रा हटके है और नायिका प्रियंका चोपड़ा  है. बिलकुल इमानदार शब्दों में कह रही हु मेरी ख़ुशी का तो ठिकाना ही नहीं था. बात चीत पूरी हो गयी थी और मुझे एक सीन लिखने के लिए दे भी दिया गया था. केवल कांट्रेक्ट  साइन करना बाकी था. मैंने निर्देश के मुताबिक़ सीन तैयार करके उनके भेज दिया और जवाब का इंतज़ार करने लगी. लेकिन जवाब नहीं आया. इसी बीच मुझे एक खबर द्वारा पता चला की एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर की लेखिका उस फिल्म को लिख रही है. मतलब साफ़ था. खैर, मैं उदास तो हुई पर ज्यादा नहीं. इच्छा हुई की अपनी लेखनी कैसे सुधारु. उन लेखिका के बारे में पता लगाया. इत्तफाक से फेसबुक पर मिल गयी. मैंने उनको बधाई दी. उन्होंने बड़े गर्व से अपनी उपलब्धियां गिनाई. फलां लेखक के साथ काम किया है फलां प्रोडूसर के साथ काम किया है. ये वो और बहुत कुछ. मैंने सोचा की सच इनके आगे मेरी औकात ही क्या. फिर ख़याल आया की क्यों न कुछ सीख लू सो मैंने आग्रह करके उनसे एक सैम्पल  सीन देने को कहा. और दोस्तों आप शायद समझ ही गए होंगे की मुझे कृतार्थ करते हुए उन्होंने जो सीन मुझे भेजा वो वही मेरा खुद का लिखा हुआ सीन था.

तो आप लोगो ने देखा की टीपने की संस्कृति कितनी ज्यादा पल्लवित और पुष्पित हो रही है. शराफत से टीपी गयी यानी की लेखक का नाम बताकर सांझा की गयी रचनाओं की हम सब खूब प्रशंसा करते है. और करनी भी चाहिए क्यूंकि ये कुछ गलत नहीं है. लेकिन दूसरी तरह से टीपी गयी चीज़े..... खैर, उनको तो मैंने झेला ही है... आप भी क्या  कीजियेगा.... झेल लीजिये...